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Saturday, July 3, 2021

जैसा समाज है, वही फिल्मों में भी दिखना चाहिएः शेरनी के डायरेक्टर अमित मसुरकर

पिछले दिनों आई फिल्म 'शेरनी' दर्शकों और समीक्षकों ने समान रूप से पसंद की। इस फिल्म ने देश में वन संरक्षण के साथ जंगल के पास रह रहे लोगों के संबंधों और परस्पर निर्भरता की भी बात की है। की यह फिल्म हिंदी फिल्मों के प्रचलित फॉर्म्युले से अलग नया विधान रचती है। इस फिल्म और फिल्म विधान पर अमित मसुरकर से अजय ब्रह्मात्मज ने बात की। प्रस्तुत हैं प्रमुख अंश : तारीफ और आलोचना से परे इस फिल्म ने आपको कितना संतुष्ट किया? वन संरक्षण पर भारत में कोई फिल्म नहीं है। मेरी कोशिश थी कि मुख्यधारा के ढांचे में पॉप्युलर कलाकारों को लेकर फिल्म बनाऊं। ऐसी फिल्मों की पहुंच बढ़ जाती है। व्यापक प्रभाव पड़ता है। मेरी फिल्म की लेखिका आस्था टिकु बहुत ईमानदारी से सारी बातें रखना चाहती थीं। अच्छा है कि लोगों ने इसे पसंद किया। आपकी फिल्मों के प्रमुख किरदार समाज के वंचित समुदाय से होते हैं... 'न्यूटन' में दलित और 'शेरनी' में एक महिला प्रमुख किरदार हैं और वे अपना पक्ष मजबूती से रखते हैं। मेरे लिए यह बहुत सामान्य बात है। मैं मुंबई में पला-बढ़ा हूं। मेरे दोस्तों का सर्कल मिक्स किस्म का है। मुझे यह कोई बड़ी बात नहीं लगती। मैंने जिस-जिस को स्क्रिप्ट सुनाई, उसमें से किसी ने इस पहलू पर विशेष ध्यान नहीं दिया। न किसी ने आलोचना की और न किसी ने टीका-टिप्पणी की। शायद उन्हें भी सामान्य बात लगी हो। आपके लिए सामान्य बात होगी। इन फिल्मों को देख रहे दर्शक किरदारों को पहचान रहे होते हैं। अभी बन रही फिल्मों में ऐसे किरदार केंद्रीय भूमिकाओं में नहीं दिखते। तो यह उतनी सामान्य बात तो नहीं हो सकती... 'शेरनी' में नायिका विद्या विंसेट और उसका हमख्याल सहकर्मी हसन ईरानी, दोनों अल्पसंख्यक समुदाय के हैं और प्रमुख भूमिकाओं में हैं। विद्या विंसेट नाम लेखिका आस्था टिकु ने चुना था। यह विविधता हमारे समाज में है। फॉरेस्ट सर्विस में जरूरी नहीं है कि अधिकारियों की अपने ही प्रांत में नियुक्ति हो। रिसर्च के दौरान पता चला कि सारे उच्च अधिकारी अलग-अलग प्रांतों से आते हैं, सिर्फ फॉरेस्ट गार्ड वहीं के होते हैं। मेरी फिल्म में ज्यादातर गार्ड और मूल निवासियों की भूमिका स्थानीय लोगों ने निभाई। इतना ही नहीं, हमारी टीम में शायद ही कोई ऐसा सदस्य था, जिसकी मातृभाषा हिंदी हो। सब देश के अलग-अलग हिस्सों से आए थे और अपने घरों में हिंदी से अलग भाषाएं बोलते हैं। मैं तो कहूंगा कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री देश को एक करती है। जब अलग-अलग पृष्ठभूमि की प्रतिभाएं एक साथ काम करती हैं तो वह विविधता फिल्मों में भी जाहिर होती है। 'शेरनी' के नेता जीके और पीके हैं। आप ने संकेतों में कह दिया कि वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं... फिल्म के एडिटिंग में वह प्रसंग कट गया। फिल्म में एक संवाद था कि वैसे चुनाव में तो दोनों आमने सामने आकर लड़ते हैं, लेकिन हैं दोनों भाई-भाई। आपका ऑब्जर्वेशन सही है कि नेताओं का चरित्र लगभग एक सा ही होता है। 'सुलेमानी कीड़ा' से 'शेरनी' तक आने में आपको 8 साल क्यों लग गए? 'सुलेमानी कीड़ा' से पहले मैं कॉरपोरेट और एनजीओ के लिए फिल्में बनाता था। मैं इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने कर्नाटक गया था, लेकिन वहां फिल्मों में रुचि जगी, तो लौट आया। मुंबई लौटने पर शॉर्ट फिल्मों के फिल्म फेस्टिवल 'मिफ' में जाना हुआ। वहां कुछ फिल्मकारों से मुलाकात हुई, जो उम्र में मुझ से तीन-चार साल ही बड़े थे। हिम्मत बंधी। मैं 'मंबलकोर' सिनेमा बहुत देखा करता था। ऐसी फिल्में कम बजट में नॉन प्रफेशनल एक्टर के साथ बनाई जाती हैं। 'सुलेमानी कीड़ा' इसी शैली और योजना के तहत बनाई। फिर 'न्यूटन' आई। 'न्यूटन' के बाद तो अनेक अभिनेताओं और निर्माताओं के ऑफर आए। मैं किसी दबाव या लोकप्रियता के लिए फिल्में नहीं बनाना चाहता। अपने समकालीनों में किन-किन फिल्मकारों ने आपको प्रेरित किया है? मैंने दिबाकर बनर्जी की 'लव सेक्स और धोखा' की मेकिंग पर फिल्म बनाई थी। अनुराग कश्यप बड़े भाई की तरह हैं। रिमा दास की फिल्में बहुत अच्छी लगती हैं। अनामिका हकसर की 'घोड़े को जलेबी खिलाने जा रिया हूं' चार-पांच बार देखी। नीरज घेवन, वासन बाला हैं। 'शेरनी' में महिला किरदारों की सहभागिता गौरतलब है जबकि हिंदी फिल्मों में नायक या नायिका सहयोगी चरित्रों को साथ में फ्रेम में भी नहीं आने देते‌... मैं उन्हें और ज्यादा देखना चाहता था। ज्योति का किरदार निभा रही संपा मंडल उम्दा कलाकार हैं। इस फिल्म की शूटिंग के समय उनके नाटक के शो चल रहे थे। फिल्म में उनके और विद्या के बीच दो सीन और लिखे गए थे। महामारी की वजह से वे सीन हम शूट नहीं कर पाए। हमें और भी कई समझौते करने पड़े। वास्तव में मेरी फिल्म सिर्फ नायिका की कहानी नहीं है। आप देखेंगे कि विद्या न तो शेरनी को बचा पाती है और न उनके शावकों को खोज पाती है। यह काम स्थानीय लोग करते हैं। स्पष्ट है कि स्थानीय निवासियों की भागीदारी से ही वन संरक्षण किया जा सकता है।


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