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Thursday, July 8, 2021

दिलीप कुमार का 15 साल पुराना इंटरव्यूः मुझे बचपन याद आता है... फुटबॉल खेलना भी

पंद्रह साल पहले अभिनेता (Bollywood Legend Dilip Kumar) से उनके बंगले पर दिलचस्प बातचीत हुई थी। दिलीप साहब की जीवनसंगिनी सायरा बानो ने तब एक भोजपुरी फिल्म प्रोड्यूस की थी - 'अब तो बन जा सजनवा हमार।' यही बहाना था इस शानदार अभिनेता से मिलने का। यह वही दौर था, जब भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री अपने उरूज पर थी। इस महान अभिनेता के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप आज पेश है दिलीप कुमार से हरि मृदुल की उस बातचीत के अंशः आपने कई जगह बताया है कि आप इत्तफाक से ऐक्टर बने। भले आपका कभी ऐक्टर बनने का सपना नहीं था, लेकिन एक दर्शक के तौर पर तो आप फिल्मों में जरूर दिलचस्पी रखते रहे होंगे? हां, मैं फिल्में जरूर देखता था, लेकिन वे अंग्रेजी फिल्में होती थीं। हिंदी फिल्मों में जब मुझे काम करने का मौका मिला, तब तक मैंने कुछ ही हिंदी फिल्में देखी थीं। उन दिनों मैं अंग्रेजी फिल्मों का दीवाना था। घरवालों से छुपकर इन फिल्मों को देखता था। बाद में उन्हें इस बात की जानकारी हो गई। वे फिल्मों के प्रति मेरी इस दीवानगी से चिंतित भी थे। जब मैंने हिंदी फिल्मों का ऐक्टर बनने का निर्णय लिया, तो मैं परेशान था कि जिस काम को जानता नहीं हूं, वह कैसे करूंगा। लेकिन तब बांबे टॉकीज की देविका रानी ने मुझसे कहा कि जिस तरह तुम फल बेचना सीख रहे हो, उसी तरह ऐक्टिंग भी सीख जाओगे। मैंने देविका की यही बात गांठ बांध कर रख ली थी। उस जमाने में आप किन अभिनेताओं से प्रभावित थे? मैं हॉलिवुड सिनेमा में पॉल मूनी और स्पेंसर ट्रेसी को पसंद करता था। जेम्स स्टुअर्ट की एक्टिंग भी बहुत प्रभावित करती थी। मैंने स्वीडिश फिल्मकार बर्गमैन की फिल्में खूब देखी थीं। मैं उनके काम से काफी मुत्तासिर था। हिंदी फिल्मों में मुझे अशोक कुमार बहुत अच्छे लगते थे। मैं उनका फैन था। मुझे उनकी ऐक्टिंग की स्टाइल पसंद थी, लेकिन मैंने ठान लिया था कि मैंउनकी नकल कतई नहीं करूंगा। आपके सामने समांतर सिनेमा पैदा हुआ। एक से एक बेहतरीन फिल्में बनीं, लेकिन यह सिनमा सर्वाइव नहीं कर पाया। क्या आप जानते थे कि यह सिनेमा दम तोड़ देगा और इसीलिए आपने ऐसी फिल्में नहीं कीं? मुझे 'गरम हवा' जैसी कई पैरलल फिल्में पसंद हैं और मैं ऐसी फिल्मों में काम भी करना चाहता था। यह मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे कोई अच्छा ऑफर नहीं मिला। एक बार सत्यजीत राय से भी बात चली थी, लेकिन वह आगे बढ़ी नहीं। बाद में कुछ और फिल्मकारों से बातें हुईं, परंतु इस तरह के सिनेमा की जो कहानियां मुझे सुनाई गईं, वे बेहद कमजोर थीं। उनमें भी एक तरह का फॉर्म्युला ही था। वे मुझे जमी नहीं। एक बात यह भी है कि मुझे बड़े दर्शक वर्ग को प्रभावित करने वाली स्क्रिप्ट ही पसंद आती है। यह सचाई है कि पैरलल सिनेमा का दर्शक वर्ग सीमित था। इसीलिए कई-कई मानीखेज फिल्में देने के बावजूद यह आंदोलन दम तोड़ गया। अपने समय में आपने काफी फिल्में छोड़ीं। एक तरह से आप फिल्में छोड़ने के लिए कुख्यात रहे हैं। सुनते हैं कि आपको 'प्यासा' और 'बैजू बावरा' जैसी फिल्में भी ऑफर हुई थीं, जो आपने ठुकरा दी थीं। इतना ही नहीं, डेविड लीन की फिल्म 'लॉरेंस ऑफ अरेबिया' में भी आपने काम करने से इनकार कर दिया था... क्या यह सच है? ठुकराने जैसी कोई बात नहीं थी। ठुकराना एक कठोर और अहंकारी शब्द है। बात यह थी कि 'प्यासा' और 'देवदास' में बड़ी बारीक समानताएं थीं और तब मैं 'देवदास' कर रहा था। 'देवदास' कर रहा था से ज्यादा यह कहना मुनासिब होगा कि मैं इस फिल्म में डूबा हुआ था। उन दिनों किसी अन्य फिल्म के बारे में सोच ही नहीं सकता था। उस फिल्म के बारे में तो कतई नहीं, जो इस फिल्म से किसी भी स्तर पर मेल खाती हो। 'प्यासा' छोड़ने की यह वजह थी। इसी तरह 'बैजू बावरा' में भी कई किस्म की दिक्कतें थीं। 'लॉरेस ऑफ अरेबिया' में परेशानी की बात यह थी कि उसमें तब मुझे केंद्रीय किरदार कमजोर लगा था। सायरा जी के साथ आपने 'दुनिया', 'छोटी बहू', 'वैराग', 'गोपी' और 'सगीना' जैसी फिल्मों में काम किया। उनमें क्या खासियत देखी? उनके व्यक्तित्व में आपको सबसे आकर्षक क्या लगता था? उनकी हंसी बहुत आकर्षित करती थी और आज भी करती है। उनका व्यक्तित्व बहुत कमाल का है। आपको पेशावर कितना याद आता है? बहुत ज्यादा याद आता है। उम्र बढ़ने के साथ यह सिलसिला और भी बढ़ चुका है। मुझे अपनी नानी याद आती है। बचपन याद आता है। अपना फुटबॉल खेलना याद आता है। आपको कई एक्टरों ने आदर्श माना। अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के अभिनय पर आपकी छाया साफ दिखाई देती है। आप क्या कहते हैं?छाया दिखना कोई बुरी बात नहीं है। छाया के बावजूद ऑरिजिनल बना जा सकता है। अमिताभ ने यह कर दिखाया। वह जेंटलमैन हैं। उनमें एक अनुशासन है। वे बहुत मेहनती भी हैं और प्रतिभाशाली भी। उन्होंने मुझे कई-कई बार प्रभावित किया है। शाहरुख तो मेरी तरह ही पठान है। मैं उसकी एनर्जी का कायल हूं। वह बहुत प्यार करने वाला बंदा है। उसमें भी टैलंट काफी है। आज के ऐक्टर पढ़ते नहीं हैं, जब कि आपका कहना है कि बिना पढ़ाई के अच्छा एक्टर बन ही नहीं सकते... हां, आज के ज्यादातर ऐक्टरों की सोच है कि लिटरेचर में क्या रखा है। मेरा कहना है कि लिटरेचर आपकी संवेदनाओं को जिंदा रखने का काम करता है। मशीनों से हमारी इस कदर दोस्ती हो चुकी है मानो हम भी मशीन हो चुके हैं। मैंने मीर, गालिब, टैगोर, इकबाल, फैज, जोश, प्रेमचंद, शरतचंद और मंटो जैसे राइटर्स को खूब पढ़ा है। ये वे लेखक हैं, जिन्हें सभी को पढ़ना चाहिए। दुनिया के तमाम बड़े लेखकों को पढ़ना चाहिए। लेकिन आज के बहुत कम ऐक्टर लिटरेचर पढ़ते हैं। यह दौर कुछ ज्यादा ही फास्ट दिख रहा है, लेकिन विचार करना चाहिए कि यह तेज दौड़ क्या इंसान को कहीं ले जा सकने में सफल होगी।


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