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Friday, January 22, 2021

मर्यादा निभाने का ठेका तो बस औरतों ने लिया हुआ हैः ऋचा चड्ढा

ऋचा चड्ढा अभिनीत फिल्म 'मैडम चीफ मिनिस्टर' आज सिनेमाघरों में रिलीज़ हो रही है। रिलीज से पहले ऐक्ट्रेस के किरदार को लेकर कॉन्ट्रोवर्सी शुरू हो चुकी है। इस फिल्म के बारे में और अपने किरदार पर ऐक्ट्रेस ने बातचीत की, आइए जानें उन्होंने क्या कहा है। 'मैडम चीफ मिनिस्टर' को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है कि इसमें आपका किरदार बसपा प्रमुख मायावती पर आधारित है? हमने पहले ही डिस्क्लेमर दे दिया है और सच में यह फिल्म काल्पनिक किरदार पर आधारित है। यदि आपको देखना है कि यह कहानी आगे कैसे बढ़ेगी, तो मैं कहना चाहूंगी कि इसमें आपको बहुत सारी महिला लीडर्स की छवि नजर आएगी। कहीं आपको लगेगा कि यह जयललिता जी पर बेस्ड है, तो कुछ पहलुओं पर लगेगा कि यह मायावती की बात कर रही है। भारत में कुछ हद तक जितनी भी फीमेल नेता रही हैं, उनके सफर में इस तरह के रंग देखने को मिलेंगे ही। यह तो सभी इंडियन फीमेल पॉलिटिशियन के साथ है कि एक पुरुष प्रधान समाज के नेतृत्व में महिला कैसे आगे आ सकती है और उन्हें कैसी-कैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। लोगों का तो ये भी कहना है कि किरदार का हेयर कट भी मायावती की याद दिलाता है? देखिए इस किरदार के बॉयकट बालों के लिए फिल्म में बहुत बड़ा तर्क है। फिल्म में मेरा यह किरदार इतना बिंदास और आजाद ख्याल का है कि अपने आपको किसी से भी कमतर नहीं समझता। वह टॉम बॉय है। इसने अपने बाल इसलिए काट कर रखें हैं क्योंकि उसके परिवर में पहले जितनी भी लड़कियां हुईं, उन्हें लड़की होने के कारण जहर चटाकर मार दिया गया। जैसे गांव में होता है, वैसे ही हमने दिखाया है। यह बगावती है, इसलिए इसके बाल छोटे हैं। यह बाइक चलाती है, खेतों में काम करती है, लकड़ी काटती है, सलमान खान का ब्रेसलेट पहनती है। इसमें वह एटिट्यूड तो है ही, साथ ही वह पृष्ठभूमि भी है कि अपने गांव में सर्वाइव करने के लिए इसने यह लुक अपनाया है। इस पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष और महिलाओं के बीच जो असमानता है, उसे आप कैसे देखती हैं? यह असमानता एक सच है। बेवकूफी की बात है कि दुनिया का जो हाल है, वह इसी मानसिकता के कारण है। आपको अपने ही घर में कम समझा जाता है। आपके घर पर आपके भाई को आपसे अच्छा खाना, शिक्षा, कपड़े आदि मिलते हैं। बेटा-बेटी के बीच भेद कई परिवारों में देखा जाता है। अब परिवारों का दल ही तो समाज बनाता है। हम आए दिन न्यूज में देख रहे हैं कि बच्चियों के साथ अमानुषी बर्ताव किया जाता है, उन्हें जिंदा जला दिया जाता है, गाड़ दिया जाता है। उनके गुप्तांग में रॉड डाल दी जाती है। ये सारे अत्याचार और घटनाएं इसी बुद्धि का ही सबूत हैं कि आपने औरतों को समझा ही नहीं है। जब तक यह सोच नहीं बदलेगी, आप चाहे जितना भी समाज सुधार कर लें, चीजें नहीं बदलने वाली। जब भी महिला प्रधान पॉलिटिकल फिल्में बनती हैं, मतभेद शुरू हो जाते हैं। आंधी, इंदू सरकार, क्वीन जैसे कई उदाहरण हैं। इसकी वजह? क्योंकि समाज में बाकी लोग आलसी हैं न, मर्यादा का ठेका तो औरतों ने लिया हुआ है! औरत कुछ गलत नहीं कर सकती। हम कुछ भी करें, रेप भी हुआ है, तो कहते हैं कि औरत की ही गलती है। अरे जिनको तुम्हें रोकना चाहिए, उन्हें आपने बाइक देकर रातों को सड़कों पर घूमने के लिए छोड़ा हुआ है। आप उन्हें औरतों की इज्जत करना नहीं सिखाते। औरत को कमतर और मर्द को श्रेष्ठ समझनेवाले ये जो दकियानूसी खयालात के लोग हैं, उनका बदलना बहुत जरूरी है। जब तक यह बेवकूफ लोग नहीं बदलेंगे, तब तक औरत को हर मोर्चे पर झेलना होगा। अभी तो यह लड़ाई बहुत लंबी है। हो सकता है कि आपके और मेरे समय में यह बदले ही नहीं। कल को जब मेरी बेटी हो, तब जाकर उसके जीवन में ऐसा कोई बदलाव आए। यह बुद्धि बदलने की बात है जो आसान नहीं होता क्योंकि ऐसे डायनासोर हमारे समाज के हर हिस्से में बैठे हैं। वे सोचते हैं कि महिलाएं केवल बच्चें पैदा करने के लिए होती हैं और उनके पास कोई काम नहीं और हम गौशाला खोलते हैं जहां उन्हें बांध कर रखा जाएगा और वह दूध देंगी और बच्चें पैदा करेंगी। अपने पिछले इंटरव्यू में आपने कहा था कि वैक्सीन आने के बाद शादी करेंगी। अब तो वैक्सीन आ गई है, तो क्या प्लान है? मैं तो तभी वैक्सीन लगवाऊंगी, जब कोई नेता कहेगा कि सबसे पहले वैक्सीन मैं लूंगा। अभी तो सब यहां-वहां से बच कर निकल रहे हैं। अभी मुझे जरूरत नहीं, पहले इन्हें जरूरत है। जब वह लेंगे, तब मैं लूंगी और अपने परिवार में सबको दिलाऊंगी। तब जाकर बात आगे बढ़ेगी। अभी कोई मतलब नहीं है, लोगों को बाहर विदेश से भी आना है। हमें थोड़ा प्लानिंग करके शादी करनी होगी। नए साल की शुरुआत होते ही रामप्रसाद की तेरहवीं, 12 ओ क्लॉक, शकीला जैसी फिल्मों के बाद आपकी यह फिल्म भी सिनेमाघरों में रिलीज हो रही है। मगर पिछली फिल्मों में दर्शक सिनेमाहॉल से नदारद रहे। दर्शक थिएटर कैसे आएंगे? इसकी एक वजह यह भी है कि थिएटरों में मात्र 50 प्रतिशत ऑक्यूपेंसी ही है। लोग परिवार या फ्रेंड्स के साथ थिएटर नहीं जा पा रहे हैं क्योंकि उन्हें अलग-अलग बैठना पड़ रहा है। यह हमारे हाथ में नहीं है। मगर मैं कहना चाहूंगी कि मैं खुद थिएटर गई थी फिल्म टेनेट देखने अपने दोस्तों के साथ, वहां 50 प्रतिशत लोग थे और उन्हें फिल्म पसंद आ रही थी। मुझे ऐसा कोई लगा नहीं कि मेरी सेफ्टी पर कोई आंच आई। मैं चाहती हूं कि दिल्ली, बिहार और नार्थ वाले दर्शक धीरे-धीरे थिएटर जाएं। पर मेरे चाहने से कुछ नहीं होता। हम कुछ कर भी नहीं सकते।


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